भारत की विविध और धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को कर्नाटक में ताज़ा विवाद से अचानक चुनौती मिली है, जिसमें उड्डुपी जिले के गवर्नमेंट गर्ल्स प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज की कुछ मुस्लिम लड़कियां अपने कॉलेज द्वारा कक्षा में बैठने पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का विरोध कर रही है क्योंकि उन्होने कक्षा में बैठने से पहले हिजाब हटाने से इनकार कर दिया। इस इनकार के पीछे का तर्क शैक्षिक / कार्यस्थलों को धार्मिक पहचान से अलग रखने की सदियों पुरानी बहस के इर्द गिर्द घूमता है। इसे दो अलग-अलग नज़रिये से देखा जा सकता है जिसे सतीश एम बेज्जिहल्ली और मुजफ्फर असदी द्वारा दिये गए तर्क से बेहतर समझा जा सकता है। सतीश एम बेज्जिहल्ली (बेंगलुरु सिटी यूनिवर्सिटी एकेडमिक काउंसिल के सदस्य) के अनुसार लिबास से मज़हब का संकेत नहीं मिलना चाहिए। यह छात्रों के बीच मतभेत पैदा करेगा। वहीं प्रोफेसर मुजफ्फर असदी का मानना है कि यदि हिजाब को एक धार्मिक प्रतीक के रूप में माना जा सकता है तो छात्रा कुमकुम (बिंदी, सिंदूर), चूड़ियों के साथ कक्षाओं में नहीं आ सकती हैं।
क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इस पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले यह समझना जरूरी है कि वास्तव में ‘हिजाब’ क्या है? और यह बहस का हिस्सा क्यों है? मोटे तौर पर हिजाब की अवधारणा, पवित्रता और सोम्यता से संबन्धित है और पुरुष एवं महिलाओं दोनों के लिए प्रासंगिक है। कुरान की आयत 7:26 में यह साफ तौर पर कहा गया है कि “ओ आदम के बच्चों हमने तुम्हारे लिए लिवास उतारा हैं जो तुम्हारी शर्मगाहों को छुपाए और रक्षा एवं शोभा का साधन हो। लेकिन ईमान का लिबास सबसे बेहतर है क्योंकि यह अल्लाह की निशानियों में से एक हैं, ताकि वे ध्यान दें। इस आयत के दो मतलब निकाले जा सकते हैं पहला पहलू, कुरान की इस आयत में ‘आदम के बच्चों को संबोधित किया गया है जिसमें पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल हैं, जिसका मतलब शरीर को ढकना पुरुष के लिए भी उतना ही जरूर है जितना की एक महिला के लिए। चूंकि पुरुषों के लिए हिजाब पहनने का कोई रिवाज नहीं हैं तो महिलाओं पर भी इसे लागू नहीं किया जाना चाहिए। दूसरा, कुरान की इस आयत में शर्मा सुरक्षा और अलंकरण को ढकने की बात कही गई है ना कि हिजाब और बुर्के के बारे में दूस पहलू, मुजफ्फर असदी द्वारा दिया गया बयान जिसमें देश के सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने क क्षमता है, जिससे मुसलमानों को बचना चाहिए क्योंकि हर मजहब दूसरे मजहब और उसअनुयाइयों का सम्मान करने का संदेश देता है। भारत एक हिन्दू बहुसंख्यक देश है हालांकि भारत मे धर्मनिरपेक्ष बने रहने और सभी को अपने-अपने धर्म का पालन करने का मौलिक अधिकार प्रदान किया हैं। भारत में मुसलमानों को शायद ही कभी अपने धर्म का पालन करने से रोका गया हो चाहें रोज़े हों, नमाज़ हो, हज पर जाना हो। नफरत फैलाने वाले तत्वों को दूर रखने के लिए हिजाब जैसे मुद्दों से बचना चाहिए, क्योंकि इसमें देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगड़ने की ताकत है।
भारत में प्रमुखा मुस्लिम संगठन जैसे जमात-ए-इस्लामी हिन्द, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत अहले हदीस, पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया आदि हमेशा मुस्लिम महिला सशक्तिकरण के मुद्दे को उठाने के लिए भारत सरकार की आलोचना करते रहते हैं और इसे राजनीतिक एजेंडा करार देते हैं। बचाव में, ये संगठन कुरान और हदीस का हवाला देते हुए गैर मौजूदा मुस्लिम समाज की एक तस्वीर पेश कराते हैं, जहां अधिकांश महिलाएं दूसरे मजहबों की महिलाओं के मुक़ाबले ज्यादा शिक्षित, सशक्त और आज़ाद हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर इन संगठनों ने मुस्लिम महिलाओं की भलाई के लिए कुछ भी अच्छा नहीं किया और सिर्फ नाम के लिए अपने संगठनों में अलग महिला विंग का गठन कर दिया। ये महिला मोर्चे पुरुषों के वर्चस्व वाले मुख्य संगठन के इशारे पर बाहर निकलते हैं, जो इनका इस्तेमाल अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए करते हैं और इनका महिला सशक्तिकरण से कोई लेना देना नहीं है।
एक बहुत ही रोचक लेख में डॉ. असमा लेमराबेट ने ‘हिजाब’ और ‘खिमार’ शब्दों के बीच का अंतर बताया हैं। उनका मानना है कि ‘हिजाब’ अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल रूढ़िवादी लोगों द्वारा किया जाता है जो चाहते हैं कि मुस्लिम महिलाएं घर के भीतर तक ही सीमित रहें ताकि महिलाओं को सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र से बाहर रखा जा सके। डॉ. अस्मा इस बात प ज़ोर देती हैं कि ‘हिजाब’ मुस्लिम महिलाओं को अलग थलग छोड़ देता हैं जबकि कुरान के हिसा से ‘खिमार समाज में महिलाओं की भागीदारी का प्रतीक है। खिमार की बजाए हिजाब अल्फ़ा को तरजीह देने के बावजूद यह बात साफ हैं कि अपनी विनम्रता को पर्दे में रखना मुस्लि प्रतीक एक जरूरी हिस्सा है। हालांकि, खुद को ढकने के लिए दुपट्टे, स्टाल, चादर या किसी अ कपड़े को चुनना एक निजी पसंद का विषय है। इसलिए कोई यह तर्क नहीं दे सकता की क का कोई एक रूप इस्लामी विश्वास का प्रतीक है।
विश्वविध्यालय और कॉलेज ऐसी जगह हैं जहां विभिन्न संस्कृतियों और मजहबों का मेल होता है। व्यक्ति को ऐसी व्यक्तिवादी पहचान से बचना चाहिए जो उसे बाकी लोगों से अलग करती हो ताकि कैम्पस में सद्भाव और संस्कृतिक ताल-मेल बना रहे, खासकर जब व्यक्तिवादी पहचान किसी के भजहब का जरूरी हिस्सा नहीं हो। जो लोग अपनी व्यक्तिगत पहचान का पालन करते हुए तालीम हासिल करना चाहते हैं वे अपने मजहब से जुड़े कॉलेज में दाखिला ले सकते हैं जहां व्यक्तिगत पहचान रखने की अनुमति है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि ऐसे संस्थानों की देश में भरी कमी है खासकर मुस्लिम लड़कियों के लिए। यह स्थिति मुस्लिम प्रतिनिधियों और नेताओं की अपने समुदाय की जरूरतों को पहचानने में हुई नाकामी को दर्शात हैं, खास कर मुस्लिम महिलाओं की तालीम के मामले में अपने भविष्य के साथ-साथ अगल पीढ़ी के भविष्य को मजबूत करने के लिए मुस्लिम महिलाओं को बेहतर तालीम हासिल करने क बहुत जरूरत है। मुस्लिम समाज बड़े पैमाने पर अभी भी वित्तीय कठिनाइयों, जटिल सामाजि संरचना, निरक्षरता आदि के अलावा कई तरह के प्रतिबंधों से जूझ रहा है। इन कठिन हालातों उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हिजाब जैसे मुद्दे कभी भी तालिम हासिल करने में रुका न बने। तालीम सशक्तिकरण जाती है और सशक्तिकरण यह सुनिश्चित करेगा कि हर स्तर महिलाओं की आवाज़ सुनी जा रही है।